जीवन दुख-ही-दुख नहीं है। यह तुमसे किसने कहा? हां यहां दुख भी हैं, लेकिन दुख केवल भूमिकाएं हैं सुख की। जैसे फूल के पास कांटे लगे हैं, वे सुरक्षायें हैं फूल की। कांटे फूलों के दुश्मन नहीं हैं; उनके रक्षक हैं, पहरेदार हैं। कांटे फूलों के सेवक हैं। जीवन दुख-ही-दुख नहीं है। यद्यपि दुख यहां हैं। पर हर दुख तुम्हें निखारता है और बिना निखारे तुम सुख को अनुभव न कर सकोगे। हर दुख परीक्षा है। हर दुख प्रशिक्षण है। ऐसा ही समझो कि कोई वीणावादक तारों को कस रहा है। अगर तारों को होश हो तो लगेगा कि बड़ा दुख दे रहा है, मीड़ रहा है, तारों को कस रहा है, बड़ा दुख दे रहा है! लेकिन वीणावादक तारों को दुख नहीं दे रहा है; उनके भीतर से परम संगीत पैदा हो सके, इसका आयोजन कर रहा है। तबलची ठोंक रहा है तबले को हथौड़ी से। तबले को अगर होश हो तो तबला कहे ः बड़ा दुख है, जीवन में दुख-ही-दुख है! जब देखो तब हथौड़ी, चैन ही नहीं है। मगर तबलची तबले को सिर्फ तैयार कर रहा है कि नाद पैदा हो सके। दुख नहीं है, जैसा तुम देखते हो वैसा। परमात्मा तुम्हें तैयार कर रहा है। यह सुख की अनंत यात्रा है। लेकिन यात्रा में कुछ कीमत चुकानी पड़ती
कुछ युवकों ने मुझ से पूछा : पाप क्या है? मैंने कहा, मूर्च्छा वस्तुत: होश पूर्वक कोई भी पाप करना असंभव है। इसलिए, मैं कहता हूं कि जो परिपूर्ण होश में हो सके, वही पुण्य है। और जो मूच्र्छा, बेहोशी के बिना न हो सके वही पाप है। एक अंधकार पूर्ण रात्रि में किसी युवक ने एक साधु के झोपड़े में प्रवेश किया। उसने जाकर कहा, मैं आपका शिष्य होना चाहता हूं। साधु ने कहा, स्वागत है। परमात्मा के द्वार पर सदा ही सबका स्वागत है। वह युवक कुछ हैरान हुआ और बोला, लेकिन बहुत त्रुटियां हैं, मुझ में! मैं बहुत पापी हूं! यह सुन साधु हंसने लगा और बोला : परमात्मा तुम्हें स्वीकार करता है, तो मैं अस्वीकार करने वाला कौन हूं! मैं भी सब पापों के साथ तुम्हें स्वीकार करता हूं। उस युवक ने कहा, लेकिन मैं जुआ खेलता हूं, मैं शराब पीता हूं- मैं व्यभिचारी हूं। वह साधु बोला, मैंने तुम्हें स्वीकार किया, क्या तुम भी मुझे स्वीकार करोगे? क्या तुम जिन्हें पाप कह रहे हो, उन्हें करते समय कम से कम इतना ध्यान रखोगे कि मेरी उपस्थिति में उन्हें न करो। मैं इतनी तो आशा कर ही सकता हूं! उस युवक ने आश्वासन दिया। गुरु का इतना आदर स्वाभ
यह सवाल बहुत जटिल है कि भगवान् ने हमे क्यों बनाया ? क्योकि भगवान् तो अनादि काल से है जब तक इस ब्रह्माण्ड की रचना तक भी नही हुई थी तो अचानक उसके मन में इस सृष्टि की रचना का ख्याल क्यों आया मैंने इस बारे में बहुत सोचा कि भगवान् ने हमें क्यों बनाया होगा कुछ कारण मेरे दिमाग में आये जैसे 1. क्या भगवान् ने अपना अकेलापन दूर करने के लिए सृष्टि का निर्माण किया 2. क्या भगवान् ने हमे इस लिए बनाया ताकि हम उसकी पूजा करें और उसका पूरी दुनिया में नाम हो 3. क्या उसने इस सृष्टि का निर्माण इस लिए किया ताकि वो अपनी महानता और पराक्रम किसी को दिखा सके और लोग उसकी जय जयकार करें 4. या क्या भगवान् एक निर्दयी तानासाह है जिसने इस सृष्टि का निर्माण इस लिए किया ताकि वो लोगो और इस सृष्टि को अपने इशारे पर चलाये, और अपना गुणगान कराये ,और उसकी पूजा या जय जयकार न करने पर लोगो को दण्डित करे या लोगो से खेल सके किसी को दुःख तो किसी को अचानक सुख, जैसा उसका दिल करे वो वही करे या फिर हम इतने बुद्धिमान या सक्षम नही हैं जो इस बात को सोच सकें कि भगवान् ने हमे क्यों बनाया होगा ? बहुत से धार्मिक विद्वानों का य
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